Thursday 4 September 2014

कर्मवादी बने न की भाग्यवादी।

कर्मवादी बने न की भाग्यवादी।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचना।
मा कर्मफलहेतुभूर्मा ते संगोsस्त्वकमर्णि।।

विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ गीता में कर्म को सर्वोपरि माना गया है। गीता में कहा गया है कि कर्म करना मनुष्य का अधिकारिक कर्तव्य है। कर्म अर्थात सभी सजीव जगत द्वारा किया गया कार्य एवं जिसको करते वक्त किसी भी फल यानि की परिणाम की कामना नही करना चाहिए। परिस्थिती कैसी भी हो परिणाम कुछ भी हो, निष्काम भाव से अपने-अपने कर्तव्यों का यथाशक्ति पालन करना चाहिए। विधि का विधान भी यही कहता है कि, प्रत्येक प्राणीं को जिवन यापन हेतु कार्य करना अनिवार्य है।

परन्तु कई बार ये देखा जाता है कि हमारे समाज में पुरुषार्थवादी आदर्शों के स्थान पर भाग्यवादी विचारधारा की लहर इस प्रकार व्याप्त हो रही है कि, मनुष्य अपने कर्मों के प्रति उदासीन होकर भाग्य पर अधिक भरोसा करने लगा है। यत्र-तत्र लोग ये कहते हुए मिल जाते हैं कि, भाग्य में ही तकलीफ है तो मेहनत करने से क्या फायदा, जो कुछ होना है होकर रहेगा या सब विधि का विधान है.............इत्यादि। जो लोग ये कहते हैं कि किस्मत पहले लिखी जा चुकी है तो कोशिश करने से क्या फायदा, ऐसे लोगों को चाणक्य कहते हैंः- 

"तुम्हे क्या पता ! किस्मत में ही लिखा हो कि कोशिश करने से ही सफलता मिलेगी। पुरषार्थ से ही दरिद्रता का नाश होता है।"


हमारे समाज में कुछ भाग्यवादी विचारधारा के लोग अक्सर ये कहते हुए मिल जायेंगे कि, जितना भाग्य में लिखा है मिल ही जायेगा। ऐसे लोगों का मानना है, 
अजगर करे ना चाकरी, पंक्षी करे ना काम। दास मलुका कह गये सबके दाता राम।। जबकि  गीता में श्री कृष्ण ने सीधे एवं सरल तरीके से उपदेश दिया है कि, मनुष्य को किसी भी परिस्थिती में कुछ न कुछ तो कर्म करना ही होगा क्योंकि अर्कमण्यता में जीवन संभव नही है। जीवन, समाज और देश की रक्षा तथा उन्नति के लिए कर्म करना उसी तरह आवश्यक है, जैसे जिवन के लिए हवा और पानी।

मित्रों, मन में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, जब सब कुछ भाग्य अनुसार है तो जरा सी तकलीफ में हम लोग डॉक्टर के पास क्यों जाते हैं? जब रोगी को कष्ट निष्चित है और मृत्यु भी निष्चित है, तो उपचार में पैसा समय और श्रम लगाने की क्या आवश्यकता है?? फिर भी हम डॉक्टर के पास जाते हैं, वास्तव में हम तकलीफ को बर्दाश्त नही कर सकते इसीलिए जब पुरुषार्थ की बात आती है तो  भाग्य की दुहाई देकर मेहनत करने से भी कतराते हैं। सच्चाई तो ये है कि भाग्य का दूसरा नाम ही करम है। रामायण में कहा गया है कि, कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करे यो तस फल चखा।। अर्थात हमारे द्वारा किये गये कार्यों से ही हमारे भाग्य का निर्माण होता है। 

हममें से कई लोग जन्म-जन्मांतर की बातें करते हैं। जन्म पिछला हो या उसके पूर्व का, सभी जन्मों का लेखा-जोखा हमारे कर्मों पर ही निर्भर होता है। भाग्य को कोसने में समय नष्ट करने की बजाय यदि हर व्यक्ति अपने-अपने कार्यों पर ध्यान दे और ईमानदारी से मेहनत करे तो सफलता अवश्य प्राप्त होती। एक विद्यार्थी का कर्म है अध्ययन वो जितनी शिद्दत और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह करेगा उसे सफलता अवश्य मिलेगी।  कई बार  मौसम का मिज़ाज किसान के अनुकूल नही रहता फिर भी किसान भगवान भरोसे या भाग्य भरोसे न रहते हुए अपने कर्म को पुरी निष्ठा से करता है। उसकी मेहनत से ही हम सबको जीवन हेतु अनाज प्राप्त हो पाता है। अक्सर भाग्यवाद हमें वस्तुस्थिति को समझने और उसका निराकरण करने की क्षमता से वंचित करता है। जिससे हमारा विचार कुंठित होता है और तर्क, विचार एवं कर्म में हमारी उदासीनता नजर आने लगती है, जो मानव प्रगति की सबसे बङी बाधक है। 

विनोबा भावे कहते हैं कि,  "कर्म वो आइना है, जो हमारा स्वरूप दिखा देता है। इसलिए हमें कर्म का एहसानमंद होना चाहिए।" 

हमारी दुनिया में कई ऐसे लोग हुए हैं जिनको कहा गया था कि इसके भाग्य में तो विद्या नही है, किन्तु उन लोगों ने अपने कर्मों के द्वारा अपनी किस्मत ही बदल दी। संस्कृत व्याकरण के महान विद्वान पाणिनी बचपन में अल्प बुद्धि के थे। एक सबक भी याद नही कर पाते थे। एक बार गुरू जी ने उन्हे कुछ याद करने को दिया परंतु वे उसे याद न कर सके तो गुस्से में गुरू जी ने पाणिनी को सजा देने के उद्धेश्य से हाँथ आगे बढाने को कहा। जैसे ही गुरू जी ने हाँथ देखा तो गुस्से को खत्म करते हुए बोले इसके भाग्य में तो विद्या ही नही है, इसे क्या सजा दूं!  तब पाणिनी ने अनुरोध किया कि गुरू जी विद्या की भाग्य रेखा कौन सी है। शिष्य के अनुरोध पर गुरू जी ने हाँथ में लकीर का स्थान बता दिया। पाणिनी ने तुरंत चाकू से उस स्थान पर विद्या की रेखा बना दी और अध्ययन में पुरी लगन से जुट गये। उन्होने अष्टाध्यायाई नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहसत्र सूत्र हैं। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनी का अतुलनिय योगदान है। ये कहना अतिश्योक्ति नही होगी कि, अपने कर्मों के अथक प्रयास से ही पाणिनी जी ने अपना भाग्य स्वयं लिखा। 

गुरू नानक देव कहते हैं कि,  "कर्म भूमी पर फल के लिए श्रम सबको करना पङता है, रब तो सिर्फ लकीरें देता है उसमें रंग तो हम सबको भरना पङता है।"

हमें व्यर्थ की शंकाओं और आशंकाओं के मायाजाल से निकल कर उत्साह के साथ आशावादी और कर्मवादी बनना चाहिये। विवेकानंद जी भी कर्म को श्रेष्ठ बताते हैं। कहा जाता है कि, ईश्वर भी उसी की मदद करते हैं जो स्वयं कार्य करने का प्रयास करता हैं। अपने भाग्य के निर्माता हम स्वंय हैं। भाग्य तो पुरुषार्थ की छाया है, जो कर्मवादी के साथ उसके अनुचर की तरह चलता है। ईमानदारी और लगन से किये गये काम में सफलता अवश्य मिलती है। यही विश्वास और निष्ठा मनुष्य की नियति ( भाग्य ) को बदल देते हैं। अतः मित्रों, हमसब कर्मवादी बने न कि भाग्यवादी। 

ए.पी.जे. अब्दुल्ल कलाम के विचार से, 
If you salute your duty, You no need to salute Anybody,
But If you pollute your duty, You have to Salute to Everybody. 

अर्थात, यदि आप अपने कर्म को सलाम कर रहे हैं तो, कोई जरूरत नहीं पङेगी किसी को सलाम करने की किन्तु यदि आप अपने कर्म के प्रति उदासीन हैं तो आपको हर किसी को सलाम करना पङेगा।  

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