Thursday 4 September 2014

रुढीवादी सोच को अलविदा कहें

रुढीवादी सोच को अलविदा कहें 


10 जुलाई को 2014 के आम बजट में वित्तमंत्री ने घोषङा की कि, 100 करोङ रूपये बेटी बचाओ, बेटी पढाओ पर खर्च किया जायेगा। 10 जुलाई को ही केन्द्र सरकार सी सबसे छोटी ईकाइ ग्राम पंचायत ने ऐसा तुगलकी फरमान जारी किया कि इंसानियत भी शर्मसार हो गई। करोङों की योजनाओं को ग्राम पंचायत के संवेदनाहीन फैसले ने धज्जियां उङा दी। साल दर साल योजनाएं बनती हैं, ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नही है 2013 को ही देखें निर्भया कांड में अनेक आन्दोलन हुए। सरकार द्वारा बेटीयों की सुरक्षा हेतु निर्भया कोष भी बनाया गया। आज देश में ही नही पूरे विश्व में नारी सुरक्षा एक महत्वपूर्ण विषय है जिसके मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कई योजनाएं शुरू की। महिलाओं के सम्मान और उनके संरक्षण हेतु देश के पहले एकीकृत संकट समाधान केन्द्र 'गौरवी' का 16 जून 2014 को भोपाल में आरंभ हुआ। फिर भी NCRB ( National Crime Records Bureau) के अनुसार भारत में  प्रतिदिन 93 महिला हैवानियत का शिकार होती है। मन में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इतनी सजगता के बावजूद आज बेटीयां सुरक्षित क्यों नही हैं????????????

भारत भूमी पर कहा जाता है कि,  "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता"  यहाँ तो कन्या को देवी मानकर नौ दिन पूजा भी की जाती है। विचार किजीए फिर भी  महिलाओं और बेटीयों के प्रति अभद्रता क्यों ?? 

सुरक्षा, इंसाफ, न्याय, योजनाएं ये सिर्फ शब्द मात्र हैं ज़मीनी हकीकत तो ये है कि आज हमारा समाज मानवता से परे संवेदनाहीन नजर आ  रहा है। सरे आम बेटीयों के साथ बदसलुकी और तमाशबीन बेबस लाचार समाज सिर्फ मूकदर्शक रह गया है। हमारी मानवीय सामाजिक सोच को जैसे लकवा मार गया है।

मित्रों मेरा मानना है कि, 

कैंसर से भी गम्भीर बिमारी से ग्रसित हमारी दकियानुसी रुढीवादी सोच का कुठाराघात बेटीयों पर जन्म से ही होने लगता है। अनेक जगहों की प्रथा के अनुसार बेटा होने पर उसका स्वागत थालियों, शंख तथा ढोल बजाकर करते हैं वही बेटी के जन्म पर ऐसा सन्नाटा जैसे कोई मातम मनाया जा रहा हो। ऐसी बेमेल धार्मिक परंपराएं जहाँ माताएं बेटे की लंबी उम्र के लिए उपवास और धार्मिक अनुष्ठान करती हैं वहीं बेटी की खुशहाली या लंबी उम्र के लिए कोई व्रत या अनुष्ठान नही होता। जन्म से ही भेद-भाव का असर दिखने लगता है बेटीयों को उपेक्षित तथा बेटों को आसमान पर बैठा दिया जाता है। भेद-भाव का बीज हम सब बोते हैं और बाद में चाहें कि बेटा बेटी का सम्मान करे ये क्या स्वाभाविक हो सकता है ! जब बीज ही असमानता को बोयेंगे तो फल समानता का कैसे मिलेगा।

सोचिए ! जिस दुनिया में बेटीयों को जन्म लेते ही पक्षपात का शिकार होना पङता हो वहाँ बेटीयाँ कितनी भी काबिल हों जाएं उन्हे लङकों से कमतर ही माना जायेगा क्योंकि हमारी बुनियादी सोच ही दोहरी मानसिकता के साथ फल-फूल रही है। आज भी अनेक परिवारों में भले ही लङकी डॉक्टर या इंजिनीयर हो वो लङके से ज्यादा कमाती हो फिर भी उसे सुन्दरता और दहेज की कसौटी पर कसा जाता है। विवाह के लिए लङके वालों के समक्ष नुमाईश की तरह पेश किया जाता है, जहाँ पसंद नापसंद का अधिकार लङकों को दिया जाता है। हमारी विषाक्त सामाजिक सोच से लङके को शंहशाह बना दिया जाता है वो जो चाहे कर सकता है। जिसका असर 21वी सदी के भारत पर भी छाया हुआ है। आज भी पुरूष प्रधान समाज की तूती बजती है, जहाँ 5 साल की बच्ची हो या 50 साल की महिला कोई सुरक्षित नही है। 

समाज का लगभग आधा भाग यानि की स्त्री वर्ग की भूमिका को भी अनदेखा नही किया जा सकता। हमारी माताओं की भी जिम्मेदारी है बेटीयों को भेद-भाव मुक्त समाज देने की किन्तु कई बार वो स्वयं ही इस दकियानुसी सोच का हिस्सा होती हैं। कहते हैं कि, औरत ही औरत की दुश्मन होती है। इस बात की गहराई हाल ही में घटी बोकारो की घटना से समझी जा सकती है।   10 जुलाई को झारखंड के बोकारो की एक ग्राम पंचायत के तुगलकी  फरमान  को  यथावत एक महिला ने ही आगे बढाया। सोचकर ही मन सिहर जाता है कि 10 साल की बच्ची को एक महिला ने ही हैवानियत की अग्नी में कैसे ढकेल दिया ! 

यदि हमें स्वस्थ भारत और बेटीयों के लिए भयमुक्त भारत बनाना है तो समाज में बेटीयों का सम्मान जन्म से ही होना चाहिए। सामाजिक ढांचे के सभी पहलुओं पर संजीदगी से विचार करना चाहिए। जहाँ स्त्री को केवल एक उपभोग की वस्तु ही समझा जाता है, ऐसे माध्यमों पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए। नारी को बाजारवाद की वस्तु न मानकर उसे भी समाज का सम्मानित हिस्सा मानना चाहिए। स्वस्थ समाज के लिए मनोरंजन की आङ में फैल रहे अश्लील कार्यक्रमों और विज्ञापनों को कठोर कानून से बन्द करना भी एक आवश्यक कदम है। विकास का मतलब ये कदापी नही है कि हम पाश्चात्य के खुलेपन को भी स्वीकारें। समाज में जागरुकता से  पक्षपात की अमानवीय सोच को समाप्त किया जा सकता है। 

रूढीवादी विषाक्त सोच भले ही आज सुरासा के मुहँ की तरह है फिर भी उसका अन्त किया जा सकता है। यदि समाज के दोनों आधार स्तंभ (नर और नारी )  मिलकर बेटी और बेटा को एक नजर से देखेंगे और समाज में व्याप्त रूढीवादी सोच को अलविदा कहेंगे तो, समभाव के दृष्टीकोंण से जलाई अलख से बेटीयों के सम्मान का सूरज जरूर उदय होगा।  

स्वामी विवेकानंद जी कहते हैंः-  हम वो हैं जो हमारी सोच ने हमें बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखिये कि आप क्या सोचते हैं। शब्द गौंण हैं, विचार दूर तक यात्रा करते हैं। 

अतः सुसंस्कारों और सकारात्मक सोच से भ्रमित लोगों के मन में सामाजिक रिश्तो के प्रति आदर की भावना को जागृत करके महिलाओं और बेटीयों के साथ हो रहे दुराचार को रोका जा सकता। सुसंस्कृत शिक्षा से बेटी बचाओ, बेटी पढाओ योजनायें अवश्य सफल होंगी। 



मित्रों, यदि आपको लगता है कि इसके अलावा भी कुछ और पहलु  हैं जिसमें भी सुधार होना चाहिये तो अपने विचार अवश्य लिखें। सभ्य सामज का आगाज हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है। 
धन्यवाद

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