Thursday 4 September 2014

लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन, जिम्मेदार कौन??

लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन, जिम्मेदार कौन??




विश्व के सबसे बङे लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र का आशय एक ऐसी शासन प्रणाली से है, जिसमें प्रभुसत्ता का अंतिम स्रोत जनता होती है। शासन नीतियों के निर्माण में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जनता भागीदारी करती है और सभी महत्वपूर्ण निर्णय जनसहमति से ही लिए जाते हैं। लोकतंत्र की व्यवस्था संविधान के अनुसार क्रियान्वित होती है और संविधान देश की जनता की आकांक्षाओं, भावनाओं, विचारों और मान्यताओं का प्रतिबिम्ब है। परन्तु विगत सप्ताह में जो कुछ लोकसभा में या राज्यसभा में हुआ उससे तो यही प्रतीत होता है कि लोकतांत्रिक एवं संवेधानिक अधिकार, 'पिंजरे में बंद पक्षी' की तरह हैं जो जिन्दा तो हैं किन्तु उङ नही सकते।


लोकसभा एवं राज्यसभा तथा विधान सभा में वर्तमान में हो रही अराजकता आज ऐसी विकृत मानसिकता को बढावा दे रही है जिसके लिए संविधान या लोकतंत्र का कोई महत्व ही नही दिखाई देता। तेलांगना का विरोध कर रहे सीमांध्र के समर्थक सांसदों द्वारा लोकसभा में तोङ-फोङ और मिर्चीस्प्रे जैसी अमानवीय घटना ने छः दशक पुराने लोकतंत्र के मंदिर लोकसभा में लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार कर दिया। तत्कालीन सरकार ने तो एक कदम और बढाकर सूचना के अधिकार को अनदेखा करते हुए, असंवेधानिक तरीके से आंध्रप्रदेश पुनर्गठन विधेयक पास करवा दिया तथा लोकतांत्रिक भावनाओं पर अराजकता का बुलडोजर चला दिया। जबकि संवेधानिक नियमों के अनुसार जब राज्यों के स्वरूप, गठन, कार्यक्षेत्र एवं अधिकारों का निर्धारण होता है तब नागरिकों के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों एवं राज्य और नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों का भी निर्धारण होता है।
जैलिनेक ने कहा है कि, संविधानहीन राज्य की कल्पना नही की जा सकती। संविधान के अभाव में राज्य, राज्य न होकर एक प्रकार की अराजकता होगी।

ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि जिन राज्यों का गठन अराजकता के आधार पर हुआ हो, उससे ये उम्मीद लगाना कि पङौसी राज्य का सहयोग करेगा किसी छलावे से कम नही है।

लोकतंत्र के मंदिर में मार-पीट आम बात होती जा रही है। जनता के प्रतिनिधी जनता की बातें सदन में कहते हैं। अपनी बात रखना संवेधानिक अधिकार है और अपनी बात को मर्यादित तरीके से कहना सभ्यसमाज का सूचक है। परन्तु आज आलम ये है कि चुनाव जीत के लिए राजनेता अराजकता और अनैतिक तरीके से अपनी बात कहने में शर्म महसूस नही करते। विधायक विधानसभा में कपङे उतार कर किस सभ्यसमाज का प्रतिनीधित्व करते हैं??  उनके लिये तो लोकतंत्र केवल वोटतंत्र का ही परिचायक है। ऐसे नेता तो साम, दाम, दंड, भेद की नीति से राजनैतिक पद पर विराजमान रहना चाहते हैं।

इतिहास गवाह है कि विधानसभा में मार-पीट लगभग दो दशक पहले शुरू हो चुकी थी। महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक ने माइक व्यवस्था संभालने वाले का सिर फोङ दिया। बिहार में एक विधायक ने दूसरी पार्टी के विधायक की अंगुली काट ली। अब तो लोकसभा एवं राज्यसभा में भी लोकतंत्र के रक्षक कहे जाने वाले नेता लोकतंत्र की गरिमा को कलंकित करने में शर्म महसूस नही करते। उनके लिए तो राजनैतिक महत्वाकांक्षा, संविधान और लोकतंत्र की भावनाओं से भी ऊपर है।

जब भी देश में ऐसी कोई घटना घटती है सभी पार्टियां एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगती हैं, जबकि सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। और तो और जनता भी नेताओं को दोष देना शुरू कर देती है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि, इन अपराधिक मानसिकता वाले व्यक्तियों को अपना प्रतिनिधी बनाया किसने???

यदि समय रहते इस जहरीली मानसिकता वाले लोगों को न रोका गया तो ये चन्द लोग, लोकसभा एवं राज्यसभा तथा विधानसभा को तो गरिमाहीन करेंगे ही साथ में पूरे देश की हवा को भी मिर्चस्प्रे जैसी जहरीली मानसिकता से जहरीला कर देंगे। लोकतंत्र और संवेधानिक नियम केवल इतिहास के पन्नों में न सिमट जाए, उसके पहले ही लोकतंत्र को अपने वोट के अधिकार से सभ्य भारत का भाग्य विधाता बनना होगा…………

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