अंधेरी दुनिया में हौसले की रौशनी hindi story
कल्पना किजीए यदि दुनिया बिलकुल अँधेरी होती तो क्या हम आज की तरह जिंदगी का आनंद ले सकते थे। आँख पर पट्टी बाँधकर चार कदम भी सीधे नही चल सकते। बिजली गुल हो जाने पर तुरंत रौशनी का इंतजाम करते हैं, हम अंधेरे से घबङाते हैं। परन्तु इस दुनिया में कई ऐसे लोग भी हैं जिनकी पूरी जिंदगी अँधेरों के साये में ही बीत जाती है। विज्ञान की अगर माने तो हम सब 85% ज्ञान, आँखों से अर्जित करते हैं। सोचिए ! उन लोगों के बारे में जो देख नही सकते, वो किस तरह से जिदंगी को रौशन करते होंगे ?
जिवन में पग-पग पर अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए आज कई दृष्टीबाधित लोग अपने हौसले की रौशनी से स्वंय के साथ अनेक लोगों की जिंदगी को प्रकाशित कर रहे हैं। बेमिशाल जिंदादिली से कई लोगों को आत्मनिर्भर बना रहे हैं। कुदरत ने सभी को कुछ न कुछ कमियाँ दी हैं तो कुछ न कुछ प्रतिभाएं भी दी है। जो लोग अपनी कमियों को दरकिनार करते हुए प्रतिभाओं पर फोकस करते हैं वो एक दिन अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाते हैं। आज हम चर्चा करते हैं, उन लोगों की जिनका सफर आसान नही था। फिरभी मंजिल तक पहुँचने का जज़बा उन्हे खास बना देता है।
पढने में तीव्र रुची रखने वाले रुस्तम जी मेहरवानजी अल्पाई की आँखें शिक्षा के सोपान चढने में मदद नही कर रहीं थीं। क्षींण होती आँखों की रौशनी से उन्हे लगने लगा कि समाज उन्हे बेसहार और लाचार समझने लगेगा। उनकी अंर्तआत्मा को ये स्वीकार नही था। 7 मई 1887 को बंबई के पारसी परिवार में जन्में अलपाई वाला ने अपनी दृण इच्छाशक्ति से दृष्टिबाधिता को परास्त कर 1913 में इंग्लैंड से बैरिस्टर की पढाई पूरी करके भारत आए और वकालत की शुरुवात किये। जबकि उस दौरान आज जैसी आधुनिक सुविधाएं भी नही थीं। आशावादी दृष्टीकोंण लिए, वे सदैव परेशानियों से एक जिंदादिल सिपाही की तरह लङते रहे और जीत-हार की परवाह किये बिना आगे बढते रहे। उनका पूरा जीवन उन लोगों के लिए समर्पित हो गया जो आँखों की रौशनी के अभाव में दयनिय जिवन गुजार रहे थे।
दृष्टीबाधित लोगों के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम है ब्रेललीपि परन्तु उस दौरान अलग-अलग स्कूलों में ब्रेल लिपियां अलग हुआ करती थीं जिससे इस लिपी में पुस्तकों का आभाव रहता था। रुस्तम जी अलपाई वाला ने 1923 में 'अंध बधिर सम्मेलन' में ब्रेललिपियों की एकरुपता को ठोस तरीके से प्रस्तुत किया किन्तु विदेशी सरकार से भारत के उत्थान की आशा रखना समुन्द्र में पुल बनाने जैसा कार्य था। परन्तु अलपाई वाला हार नही माने और उनके अथक प्रयासों का परिणाम रहा कि 1952 में युनेस्को ने भारत के लगभग 20लाख दृष्टीबाधित लोगों के लिए एक भारतीय ब्रेल लीपी स्वीकार की। उन्होने दृष्टीबाधित लोगों के लिए व्यवसाय शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जिससे वे आर्थिक क्षेत्र में आत्म निर्भर बन सकें। 1952 में आपके सद्प्रयत्नो से 'नेशनल ब्लाइंड एसोसिएशन' की स्थापना हुई, जो शिक्षा के साथ प्रशिक्षण केन्द्र तथा औद्योगिक केन्द्र के माध्यम से अनेक दृष्टीबाधित लोगों को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास कर रहा है।
सामाजिक सेवाओं की जाग्रत आत्मा बेरिस्टर रुस्तमजी अल्पाई वाला को 1961 में भारत सरकार ने 'पद्म श्री' से अलंकृत किया। मनुष्य केवल एक अंग के अक्षम हो जाने से हताश हो जाता है, किन्तु अलपाई वाला ने शारीरिक अपंगता को स्वीकार नही किया। 1956 में आधे अंग में लकवे का प्रकोप हुआ फिरभी आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होकर लाखों लोगों के जीवन में सुप्रभात लाने में सफल हुए। अनेक आँधियों को झेलते हुए सफलता का दिपक रौशन करने वाले विनम्र तथा मृदुभाषी अल्पाई वाला मानव जगत में अनेक लोगों के लिेए प्रेरणा स्रोत हैं।
आज जिस समाज में लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, ऐसी दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने आत्मविश्वास के बल पर स्वंय को ही नही बल्की हजारों लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वालंबी बनाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसी ही एक महिला के जीवन परिचय को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहे हैंः-
डेरीना स्वंय दृष्टीबाधित महिला हैं, किन्तु अपने हौसले की रौशनी से स्वंय को सुशिक्षित तथा स्वालंबी बनाते हुए ,हजारो दृष्टीबाधित लोगों के जीवन में प्रकाश किरण की तरह कार्यरत हैं। डेरीना डी ग्वाइया 'ब्राजीलियन फाउंडेशन' नामक संस्था की अध्यक्षा तथा प्राण हैं। 'विश्व दृष्टीबाधित कल्याण समिति' की उपाध्यक्ष हैं। उनकी संस्था में ब्रेल पुस्तकों का मुद्रण कई दृष्टीबाधित लोग बहुत ही कुशलता से तथा समग्र भाव से कर रहे हैं। डेरीना का अक्सर यही प्रयास रहता है कि दृष्टीबाधित लोग किसी पर निर्भर न रहें। उनकी संस्था रोजगार के अवसर की तलाश करती रहती है, जिससे आत्मनिर्भर जीवन जीने का सौभाग्य सभी दृष्टीबाधित लोगों को हो।
एक बार एक ब्राजील दृष्टीबाधित युवक 'साओ पालो' डेरीना डी ग्वाइया के पास आया और अपनी समस्या सुनाई। वे एक निपुण मालिश करने वाला था फिर भी उसे नौकरी नही मिल रही थी। डेरीना ने उसे आश्वासन दिया कि मैं पुरा प्रयास करुंगी। डेरीना को पता चला कि एक क्लब में मालिश करने वाले युवक की जरूरत है, वे तुरंत उसके अध्यक्ष से मिलने गईं किन्तु अध्यक्ष महोदय ने कहा कि, अंधे युवक से मुझे सहानभूति है पर उसे नौकरी पर नही रख सकता।
डेरिना ने कहा, श्री मान ! मालिश आँखों से तो की नही जाती, हाँथो से की जाती है। आप अपनी सहानभूती को थोङा विकसित करने की कृपा करें। उसे रख कर देखें यदि कार्य समझ में न आए तो मना कर दिजीयेगा।
अध्यक्ष को ये बात उचित लगी और युवक साओ पालो को नौकरी पर रख लिया। युवक की कार्यदक्षता और लगन से सभी क्लब मैम्बर संतुष्ट रहने लगे और वो युवक वहीं वर्षों तक नौकरी करता रहा।
ये वाक्या महज उदाहरण नही है बल्की समाज की सोच को दर्शाता है। यदि हमारे समाज में लोगों की सोच और सहयोग की भावना का विकास हो जाए तो कई दृष्टीबाधित लोग अपने पैरों पर खङे होकर आत्मनिर्भर बन सकते हैं। मेरी नजर में ही आज ऐसे कई दृष्टीबाधित लोग हैं जो बौद्धिक क्षमता में सामान्य लोगों से भी आगे हैं तथा विशेष क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परचम लहरा चुके हैं। जिनका कहना है कि, "हम रास्ता नही देखते मंजील देखते हैं।"
कृष्णकांत माणें आज सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं तथा डिजीटल टेक्नोलॉजी को महत्व देते हुए, अनेक लोगों के लिए जिवंत मिसाल हैं। राजस्थान के पहले दृष्टीबाधित जज भीलवाङा के ब्रह्मानंद शर्मा तथा पी.के.पिंचे कमिशनर पद पर अनेक बाधाओं को आत्मविश्वास के साथ पार करके पदासीन हुए हैं। पर्वतारोही अतुल रंजन सहाय, सॉलीलिटर कंचन सहाय, पत्रकार सुब्रमणी जैसे लोग दृष्टीबाधिता के बावजूद लीक से अलग हठ कर काम कर रहे हैं। टाटा स्टील कंपनी में कार्यरत अतुल रंजन सहाय, बछेन्द्री पाल के साथ कई बर्फीली चोटियों पर ट्रैकिगं कर चुके हैं। 2006 में पद्म श्री से सम्मानित डॉ. गायीत्री संकर का बचपन बहुत ही मुश्किल दौर से गुजरा था। माता-पिता का साथ छूट जाना और दृष्टीबाधिता का अभिशाप, फिर भी अपनी मेहनत और लगन से वे आज ऑल इण्डिया रेडियो में पिछले 22 साल से कार्यरत हैं।
इंदौर की पूर्णिमा जैन एमपीपीएससी को क्वालीफाइ करने वाली पहली दृष्टीबाधिता हैं किन्तु दृष्टीबाधिता के कारण रिजेक्ट कर दिया गया। उन्हे जीवन में पग-पग पर ये एहसास कराया गया कि वे आम लोगों से कमतर हैं। हार न मानने वाली पूर्णिमा ने यूपीएससी की परिक्षा दी और सभी राउन्ड्स में अच्छे प्रर्दशन के बावजूद उनकी नियुक्ति नही की गई। उन्हे 1123 अंक मिले थे, जो उस वर्ष के टॉपर के बराबर थे। पूर्णिमा जैन ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया आखिर उसे इंसाफ 'प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह' के हस्तक्षेप से ही मिल सका। पूर्णिमा को इंडियन रेलवे पर्सनल सर्विसेज के ग्रुप बी, क्लास वन के तहत पोस्टिंग दी गई। जबकि उनके नम्बरों की योग्यता के आदार पर आईएएस या आईएफएस के तहत पोस्टिंग मिलनी चाहिए थी।
अनेक सफलताओं के बावजूद आज भी दृष्टीबाधित लोगों को अपनी योग्यता को प्रमाणित करने के लिए अनेक अग्नि परिक्षाओं से गुजरना पङता है क्योंकि समाज की संकीर्ण सोच उनके मार्ग की सबसे बङी बाधा है। अनेक नकारात्मक रास्तों के बावजूद दृष्टीबाधित लोग अपनी दृणइच्छा शक्ति से "जहाँ चाह है वहाँ राह है", कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
उन तमाम जिंदादिल जिंदगी को मेरा सलाम है, जिनके लिए शारीरिक दोष प्रगती के मार्ग में बाधा नही बनते। इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी से नेत्रदान की अपील करते हैं। आपकी ये पहल आपके न रहने पर भी किसी के जीवन का उजाला बन सकती है।
जिवन में पग-पग पर अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए आज कई दृष्टीबाधित लोग अपने हौसले की रौशनी से स्वंय के साथ अनेक लोगों की जिंदगी को प्रकाशित कर रहे हैं। बेमिशाल जिंदादिली से कई लोगों को आत्मनिर्भर बना रहे हैं। कुदरत ने सभी को कुछ न कुछ कमियाँ दी हैं तो कुछ न कुछ प्रतिभाएं भी दी है। जो लोग अपनी कमियों को दरकिनार करते हुए प्रतिभाओं पर फोकस करते हैं वो एक दिन अनेक लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाते हैं। आज हम चर्चा करते हैं, उन लोगों की जिनका सफर आसान नही था। फिरभी मंजिल तक पहुँचने का जज़बा उन्हे खास बना देता है।
पढने में तीव्र रुची रखने वाले रुस्तम जी मेहरवानजी अल्पाई की आँखें शिक्षा के सोपान चढने में मदद नही कर रहीं थीं। क्षींण होती आँखों की रौशनी से उन्हे लगने लगा कि समाज उन्हे बेसहार और लाचार समझने लगेगा। उनकी अंर्तआत्मा को ये स्वीकार नही था। 7 मई 1887 को बंबई के पारसी परिवार में जन्में अलपाई वाला ने अपनी दृण इच्छाशक्ति से दृष्टिबाधिता को परास्त कर 1913 में इंग्लैंड से बैरिस्टर की पढाई पूरी करके भारत आए और वकालत की शुरुवात किये। जबकि उस दौरान आज जैसी आधुनिक सुविधाएं भी नही थीं। आशावादी दृष्टीकोंण लिए, वे सदैव परेशानियों से एक जिंदादिल सिपाही की तरह लङते रहे और जीत-हार की परवाह किये बिना आगे बढते रहे। उनका पूरा जीवन उन लोगों के लिए समर्पित हो गया जो आँखों की रौशनी के अभाव में दयनिय जिवन गुजार रहे थे।
दृष्टीबाधित लोगों के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम है ब्रेललीपि परन्तु उस दौरान अलग-अलग स्कूलों में ब्रेल लिपियां अलग हुआ करती थीं जिससे इस लिपी में पुस्तकों का आभाव रहता था। रुस्तम जी अलपाई वाला ने 1923 में 'अंध बधिर सम्मेलन' में ब्रेललिपियों की एकरुपता को ठोस तरीके से प्रस्तुत किया किन्तु विदेशी सरकार से भारत के उत्थान की आशा रखना समुन्द्र में पुल बनाने जैसा कार्य था। परन्तु अलपाई वाला हार नही माने और उनके अथक प्रयासों का परिणाम रहा कि 1952 में युनेस्को ने भारत के लगभग 20लाख दृष्टीबाधित लोगों के लिए एक भारतीय ब्रेल लीपी स्वीकार की। उन्होने दृष्टीबाधित लोगों के लिए व्यवसाय शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जिससे वे आर्थिक क्षेत्र में आत्म निर्भर बन सकें। 1952 में आपके सद्प्रयत्नो से 'नेशनल ब्लाइंड एसोसिएशन' की स्थापना हुई, जो शिक्षा के साथ प्रशिक्षण केन्द्र तथा औद्योगिक केन्द्र के माध्यम से अनेक दृष्टीबाधित लोगों को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास कर रहा है।
सामाजिक सेवाओं की जाग्रत आत्मा बेरिस्टर रुस्तमजी अल्पाई वाला को 1961 में भारत सरकार ने 'पद्म श्री' से अलंकृत किया। मनुष्य केवल एक अंग के अक्षम हो जाने से हताश हो जाता है, किन्तु अलपाई वाला ने शारीरिक अपंगता को स्वीकार नही किया। 1956 में आधे अंग में लकवे का प्रकोप हुआ फिरभी आत्मा के प्रकाश से प्रकाशित होकर लाखों लोगों के जीवन में सुप्रभात लाने में सफल हुए। अनेक आँधियों को झेलते हुए सफलता का दिपक रौशन करने वाले विनम्र तथा मृदुभाषी अल्पाई वाला मानव जगत में अनेक लोगों के लिेए प्रेरणा स्रोत हैं।
आज जिस समाज में लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, ऐसी दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने आत्मविश्वास के बल पर स्वंय को ही नही बल्की हजारों लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वालंबी बनाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसी ही एक महिला के जीवन परिचय को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहे हैंः-
डेरीना स्वंय दृष्टीबाधित महिला हैं, किन्तु अपने हौसले की रौशनी से स्वंय को सुशिक्षित तथा स्वालंबी बनाते हुए ,हजारो दृष्टीबाधित लोगों के जीवन में प्रकाश किरण की तरह कार्यरत हैं। डेरीना डी ग्वाइया 'ब्राजीलियन फाउंडेशन' नामक संस्था की अध्यक्षा तथा प्राण हैं। 'विश्व दृष्टीबाधित कल्याण समिति' की उपाध्यक्ष हैं। उनकी संस्था में ब्रेल पुस्तकों का मुद्रण कई दृष्टीबाधित लोग बहुत ही कुशलता से तथा समग्र भाव से कर रहे हैं। डेरीना का अक्सर यही प्रयास रहता है कि दृष्टीबाधित लोग किसी पर निर्भर न रहें। उनकी संस्था रोजगार के अवसर की तलाश करती रहती है, जिससे आत्मनिर्भर जीवन जीने का सौभाग्य सभी दृष्टीबाधित लोगों को हो।
एक बार एक ब्राजील दृष्टीबाधित युवक 'साओ पालो' डेरीना डी ग्वाइया के पास आया और अपनी समस्या सुनाई। वे एक निपुण मालिश करने वाला था फिर भी उसे नौकरी नही मिल रही थी। डेरीना ने उसे आश्वासन दिया कि मैं पुरा प्रयास करुंगी। डेरीना को पता चला कि एक क्लब में मालिश करने वाले युवक की जरूरत है, वे तुरंत उसके अध्यक्ष से मिलने गईं किन्तु अध्यक्ष महोदय ने कहा कि, अंधे युवक से मुझे सहानभूति है पर उसे नौकरी पर नही रख सकता।
डेरिना ने कहा, श्री मान ! मालिश आँखों से तो की नही जाती, हाँथो से की जाती है। आप अपनी सहानभूती को थोङा विकसित करने की कृपा करें। उसे रख कर देखें यदि कार्य समझ में न आए तो मना कर दिजीयेगा।
अध्यक्ष को ये बात उचित लगी और युवक साओ पालो को नौकरी पर रख लिया। युवक की कार्यदक्षता और लगन से सभी क्लब मैम्बर संतुष्ट रहने लगे और वो युवक वहीं वर्षों तक नौकरी करता रहा।
ये वाक्या महज उदाहरण नही है बल्की समाज की सोच को दर्शाता है। यदि हमारे समाज में लोगों की सोच और सहयोग की भावना का विकास हो जाए तो कई दृष्टीबाधित लोग अपने पैरों पर खङे होकर आत्मनिर्भर बन सकते हैं। मेरी नजर में ही आज ऐसे कई दृष्टीबाधित लोग हैं जो बौद्धिक क्षमता में सामान्य लोगों से भी आगे हैं तथा विशेष क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का परचम लहरा चुके हैं। जिनका कहना है कि, "हम रास्ता नही देखते मंजील देखते हैं।"
कृष्णकांत माणें आज सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं तथा डिजीटल टेक्नोलॉजी को महत्व देते हुए, अनेक लोगों के लिए जिवंत मिसाल हैं। राजस्थान के पहले दृष्टीबाधित जज भीलवाङा के ब्रह्मानंद शर्मा तथा पी.के.पिंचे कमिशनर पद पर अनेक बाधाओं को आत्मविश्वास के साथ पार करके पदासीन हुए हैं। पर्वतारोही अतुल रंजन सहाय, सॉलीलिटर कंचन सहाय, पत्रकार सुब्रमणी जैसे लोग दृष्टीबाधिता के बावजूद लीक से अलग हठ कर काम कर रहे हैं। टाटा स्टील कंपनी में कार्यरत अतुल रंजन सहाय, बछेन्द्री पाल के साथ कई बर्फीली चोटियों पर ट्रैकिगं कर चुके हैं। 2006 में पद्म श्री से सम्मानित डॉ. गायीत्री संकर का बचपन बहुत ही मुश्किल दौर से गुजरा था। माता-पिता का साथ छूट जाना और दृष्टीबाधिता का अभिशाप, फिर भी अपनी मेहनत और लगन से वे आज ऑल इण्डिया रेडियो में पिछले 22 साल से कार्यरत हैं।
इंदौर की पूर्णिमा जैन एमपीपीएससी को क्वालीफाइ करने वाली पहली दृष्टीबाधिता हैं किन्तु दृष्टीबाधिता के कारण रिजेक्ट कर दिया गया। उन्हे जीवन में पग-पग पर ये एहसास कराया गया कि वे आम लोगों से कमतर हैं। हार न मानने वाली पूर्णिमा ने यूपीएससी की परिक्षा दी और सभी राउन्ड्स में अच्छे प्रर्दशन के बावजूद उनकी नियुक्ति नही की गई। उन्हे 1123 अंक मिले थे, जो उस वर्ष के टॉपर के बराबर थे। पूर्णिमा जैन ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया आखिर उसे इंसाफ 'प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह' के हस्तक्षेप से ही मिल सका। पूर्णिमा को इंडियन रेलवे पर्सनल सर्विसेज के ग्रुप बी, क्लास वन के तहत पोस्टिंग दी गई। जबकि उनके नम्बरों की योग्यता के आदार पर आईएएस या आईएफएस के तहत पोस्टिंग मिलनी चाहिए थी।
अनेक सफलताओं के बावजूद आज भी दृष्टीबाधित लोगों को अपनी योग्यता को प्रमाणित करने के लिए अनेक अग्नि परिक्षाओं से गुजरना पङता है क्योंकि समाज की संकीर्ण सोच उनके मार्ग की सबसे बङी बाधा है। अनेक नकारात्मक रास्तों के बावजूद दृष्टीबाधित लोग अपनी दृणइच्छा शक्ति से "जहाँ चाह है वहाँ राह है", कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
उन तमाम जिंदादिल जिंदगी को मेरा सलाम है, जिनके लिए शारीरिक दोष प्रगती के मार्ग में बाधा नही बनते। इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी से नेत्रदान की अपील करते हैं। आपकी ये पहल आपके न रहने पर भी किसी के जीवन का उजाला बन सकती है।
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