दिशा भ्रमित होता भारत का कर्णधार
आज जहाँ देखो वहाँ युवा वर्ग बड़े रौष में नजर आता हैं जरा-जरा सी बात पर इरीटेट(irritate) हो जाना उसकी आदत बनती जा रही है। समाचार पन्नों में आये दिन पढऩे को मिलता है कि किसी 14-15 साल के बच्चे ने अपने सहयोगी की हत्या कर दी या कहीं किसी ने अध्यापक को मार दिया। कहीं किसी युवा ने लडक़ी पर तेजाब डाल दिया। ये तेजाबी मानसिकता बढ़ती ही जा रही है।
बढ़ती हुई इस विषैली मानसिकता का मूलकारण बच्चों की बचपन की दिनर्चया का बदल जाना काफी हद तक जिम्मेदार है। डॉ. स्टेनले हॉल की पुस्तक‘ऐंडोलसेंस’ में बच्चों के बारे में वैज्ञानिक आधार पर लिखा है कि बच्चों के मनोभावों पर परिवेश का महत्वपूर्ण एवं निर्णायक प्रभाव रहता है।
पुराने समय में बच्चे, पंचतंत्र, चंपक एवं नंदन जैसी बाल पत्रिकाओं को पढ़ते थे,जो उनमें सहयोग तथा सभी प्राणी जगत से प्रेम करना सिखाती थी। अल्बर्ट ऑइनस्टाइन ने कहा है कि--
If you want your children to be intelligent, read them fairy tales. If you want them to be more intelligent, read them more fairy tales.” ― Albert Einstein
पहले बच्चे, ऐसे खेल खेलते थे जिससे, टीम भावना का विकास होता था और शारीरिक विकास भी हो जाता था। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से भी लाभदायक होता था। आज के परिवेश में वीडियो गेम खेलते हैं, वो भी ऐसे जो मारधाड़ से भरपूर हैं। हर स्टेज में कई किरदारों को मारकर अपने जीत के लक्ष्य को हासिल करते हैं। बच्चों के मानस पटलपर आक्रोश का असर कब अपनी छाप बना लेता है पता ही नही चलता और ये आक्रोश उनके व्यवहार में शामिल हो जाता है। बाल्यावस्था में बच्चों का मस्तिष्क कोमल एवं बातों को ग्रहण करने वाला होता है। यदि उस दौरान उसे अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान करा दिया जाए तो बाल मस्तिष्क उसे शीघ्र ग्रहण करके व्यावहारिक रूप देने का प्रयास करेगा, जो समाज एवं राष्ट्र के लिये हितकर होगा।
आजकल एक वायरस (virus) बहुत तेजी से अपना असर दिखा रहा है बच्चे ना नही सुनना चाहते। इस वायरस को फैलाने में माँ-बाप भी जिम्मेदार है। एक या दो बच्चे आज परिवार में होते हैं उनकी सारी इच्छाएं पूरी कर दी जाती है। इनमें से ही कुछ बच्चे बड़े होकर जरा सी ना पर अपने माँ-बाप को भी मार सकते है।
भारत में एक होड़ सी है कि पाश्चात्य सभ्यता के अनुसार जीवन यापन करना। जो बातें वहाँ सरदर्द का कारण बन गई हैं, वो हम यहाँ बड़े शौक से अपनाते हैं। आजकल एक बड़ी बहस चल रही है कि सेक्स एजुकेशन बच्चों को जरूर देना चाहिए। माना सही है, ज्ञान सब तरह का होना चाहिए किन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हर ज्ञान की एक मानसिक उम्र होती है, उसी के अनुसार ज्ञान दिया जाए तो बेहतर होता है। अधकचरा ज्ञान, अपरिपक्व ज्ञान नुकसान के सिवाय कुछ नही दे सकता जिस तरह अधपका खाना पेट दर्द का कारण बनता है, उसी तरह अधपका ज्ञान मानसिकता को बिमार करता है।
बच्चों का मन बहुत कोमल होता है इसलिए हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि बच्चों को ऐेसे खेल या ज्ञान न दे जो उन्हे अपराधी बनने में मदद करते हैं। बच्चों की फरमाइश पर उन्हे ना कहना भी सीखें क्योंकि जिस तरह आजकल नित नये शर्मसार किस्से सुनने को मिल रहे हैं, वो कब भीषण रूप ले लेंगे हम सोंच भी नही पायेंगे।
आज हम सोचने पर मजबूर हैं कि क्या हम वाकई 21वीं सदी में हैं, जो नई टेक्नोलॉजी और ज्यादा साक्षर युवा की फौज है। आदि-मानव काल में भी इतनी क्रूरता न रही होगी जिस तरह की विक्षिप्त मानसिकता आज जन्म ले रही हैं।
समय रहते सचेत रहना बहुत जरूरी है वरना ये तेजाबी वायरस पूरे समाज को ही जला देगा।
बच्चों का मन मक्खन की तरह निर्मल होता है, वो तो कुम्हार की उस मिट्टी की तरह हैं जिसे जिस रूप या आकार में ढालो ढल जायेंगे।
दोस्तों, हम सब प्रण करें कि बच्चों को कहानियों और अच्छे खेलों के माध्यम से उनके मन को वो शक्ति प्रदान करेंगे जो उनकें मन के भीतर जाकर उनमें संस्कार, सर्मपण, सदभावना और भारतीय संस्कृति पर गर्व करना सिखाये। बाल साहित्य में ऐसे अनेक किस्से हैं, जो प्रकृति के माध्यम से परोपकार की भावना को सिखाते हैं।
कल का सूरज बच्चों को शिष्ट एवं शांत प्रकाश से रौशन करे यही अभिलाषा हैं।
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