विवाह जैसे पवित्र बंधन पर तलाक का ग्रहणं क्यों???
हिन्दु धर्म में प्रचलित सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है विवाह, जिसके गठबंधन से दो लोगों यानि की वर एवं वधु ही नही बल्की दो परिवारों, दो संस्कारों का भी मिलन होता है। मानव समाज की महत्वपूर्ण प्रथा विवाह के अंर्तगत वर एवं वधु अग्नि को साक्षी मान कर तन, मन और आत्मा के पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हमारे पुराणों, वेदो एवं साहित्यों में भी विवाह की मर्यादा को स्थापित किया गया है।समाज में हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाने वाला वैवाहिक बंधन का कार्यक्रम दो दशक पहले तक 10 - 12 दिन तक चलता था। समय के साथ 5 दिन का हो गया फिर तीन दिन में ही विवाह कार्यक्रम संपन्न होने लगे। आज आलम ये है कि समाज का अति महत्वपूर्ण संस्कार महज तीन घंटे में संपन्न हो जाता है। समय की कमी का रोना रोने वालों के लिए वो दिन दूर नही जब विवाह जैसा पवित्र बंधन "रेडी टू ईट" की तरह दो मिनट में ही पूर्ण हो जायेगा।
कहते हैं "सोना तप कर ही कुन्दन बनता है" उसी प्रकार वैवाहिक बंधन भी अपनी-अपनी रीति-रिवाजों के अनुसार हवन की वेदी पर अग्नि के समक्ष किये गये वादों से मजबूत होता है। समय के परिवर्तन ने और आधुनिकता की आँधी से इस पवित्र संस्कार में बदलाव की बयार बह रही है। जहाँ गोत्र, जाति, धर्म एवं गुण आदि का कठोरता से पालन होता था वहाँ अब लङके लङकियों की राय और पसंद को महत्व दिया जा रहा है। पूराने जमाने की मान्यताओं, उपजाति, योग्य वर, सुशील दुल्हन जैसी कसौटियों से हट कर पालक की सहमति से अंर्तजातिय विवाह को सहमति मिल रही है। जाति तो अब केवल राजनैतिक उपकरण रह गई है।
शादी को लेकर अब लचीला और व्यवहारिक रवैया अपनाया जा रहा है। वैचारिक सामजस्य पर अधिक जोर दिया जा रहा है। वर-वधु की तलाश पंडितों या रिश्तेदारों की बजाय वैवाहिक विज्ञापनो तथा इंटरनेट के माध्यम से की जा रही है। मन में प्रश्न ये उठना स्वाभाविक है कि आज अधिक लचिलापन, वैचारिक महत्व और उच्च शिक्षा के बावजूद वैवाहिक बंधन तलाक जैसी कुप्रथा की अग्नि में पहले से ज्यादा क्यों सुलग रहे हैं?
विज्ञान की नित नई टेक्नोल़ॉजी जहाँ विकास के नये आयाम खोल रही है वहीं, वैचारिक सामजस्य के बावजूद विवाह जैसे पवित्र बंधन को विच्छेद भी कर रही है। एक सर्वे के अनुसार विगत एक साल में तलाक का कारण आधुनिक परिवेश में व्याप्त फेसबुक और वाट्सअप जैसी सुवधाएं भी हैं। कई बार नेटवर्क प्रॉब्लम की वजह से कुछ ऐसी गलतफहमी हो जाती है कि बात तलाक तक पहुँच जाती है। वास्तव में हम सभी आज आधुनिकता के रंग में इस कदर रंग गये हैं कि एक दूसरे की बातों को धैर्य से सुनने की शक्ति को कहीं खोते जा रहे हैं। एक तरफ तो हमारी नई टेक्नोल़ॉजी और दूसरी तरफ सामाजिक दुषित मान्यता रिश्तों को तोङने में "आग में घी" का काम करती हैं।
आज हम कितने भी आधुनिक होने का परचम फैलाएं किन्तु अभी भी सिर्फ लङकियों को ही अच्छी पत्नी एवं अच्छी बहु बनने की नसीहत दी जाती है। कोई भी अभिभावक अपने बेटे को एक अच्छा पति एवं अच्छा दामाद बनने की नसिहत क्यों नही देते? 21वीं शदी में लङका और लङकी की बराबरी की बात करते हैं। हिन्दु अधिनियम 955 के तहत दोनों को बराबरी का दर्जा देते हैं। वेदों के अनुसार भी पत्नि को आधा अंश कहते हैं। "ताली तो दोनो हाँथ से ही बजती है" फिर सिर्फ एक को नसिहत देने से विवाह जैसे पवित्र बंधन को कब तक टूटने से बचाया जा सकता है।
कुछ लङके प्यार को समझते हुए भावनात्मक भावनाओं से युक्त यदि अपनी पत्नी की काबलियत का आदर करते हैं और उनकी कही बात को अहमियत देते हैं तो, हमारे अपने कहे जाने वाले रिश्ते ही इस भावना को "जोरू का गुलाम" जैसी उपाधी दे देते हैं। कई बार ऐसे आघातों से दामपत्य जैसा मधुर रिश्ता धाराशायी हो जाता है।
विवाह संबन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए काउनसलर (सलाहाकारों) की बढती बयार यही दर्शाती है कि हमारे समाज में आज हम भले ही अधिक शिक्षित हो गये हों, अधिक आर्थिक संपन्न हो गये हों परन्तु भावनात्मक रिश्तों को आपस में सुलझाने में असर्मथ हैं। ये सलाहकार मनोवैज्ञानिक दृष्टीकोंण से समझा जरूर सकते हैं किन्तु रिश्ते सदैव मधुर रहें इसकी गारंटी नही देते। अतः वैवाहिक युगल को अपनी समस्याओं को आपसी बातचीत और धैर्य के साथ स्वविवेक से हल करना चाहिए, जिससे आधुनिकता के परिवेश में भी हम अपनी संस्कृति जो की भावनात्मक रिश्तों की नींव है, उससे दूर न हों सकें।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, विवाह जैसे पवित्र संस्कार को जिस पर सृष्टी को आगे बढाने का दायित्व भी है ऐसे पवित्र बंधन को अपने प्यार, समर्पण और आपसी समझदारी से इतना मजबूत करना चाहिये कि आधुनिकता और सामाजिक दुषित सोच इस बंधन को तोङ न सकें।
Marrige is a thousand little things....
It's giving up your right to be right in the heat of an argument. It's forgiving another when the let you down . It's loving someone enough to step down so they can shine. It's frindship. It's being a cheerleader and trusted confidant. It's place of forgiveness that welcomes one home and arms they can run to in the mist of a storm.
It's grace.
कहते हैं "सोना तप कर ही कुन्दन बनता है" उसी प्रकार वैवाहिक बंधन भी अपनी-अपनी रीति-रिवाजों के अनुसार हवन की वेदी पर अग्नि के समक्ष किये गये वादों से मजबूत होता है। समय के परिवर्तन ने और आधुनिकता की आँधी से इस पवित्र संस्कार में बदलाव की बयार बह रही है। जहाँ गोत्र, जाति, धर्म एवं गुण आदि का कठोरता से पालन होता था वहाँ अब लङके लङकियों की राय और पसंद को महत्व दिया जा रहा है। पूराने जमाने की मान्यताओं, उपजाति, योग्य वर, सुशील दुल्हन जैसी कसौटियों से हट कर पालक की सहमति से अंर्तजातिय विवाह को सहमति मिल रही है। जाति तो अब केवल राजनैतिक उपकरण रह गई है।
शादी को लेकर अब लचीला और व्यवहारिक रवैया अपनाया जा रहा है। वैचारिक सामजस्य पर अधिक जोर दिया जा रहा है। वर-वधु की तलाश पंडितों या रिश्तेदारों की बजाय वैवाहिक विज्ञापनो तथा इंटरनेट के माध्यम से की जा रही है। मन में प्रश्न ये उठना स्वाभाविक है कि आज अधिक लचिलापन, वैचारिक महत्व और उच्च शिक्षा के बावजूद वैवाहिक बंधन तलाक जैसी कुप्रथा की अग्नि में पहले से ज्यादा क्यों सुलग रहे हैं?
विज्ञान की नित नई टेक्नोल़ॉजी जहाँ विकास के नये आयाम खोल रही है वहीं, वैचारिक सामजस्य के बावजूद विवाह जैसे पवित्र बंधन को विच्छेद भी कर रही है। एक सर्वे के अनुसार विगत एक साल में तलाक का कारण आधुनिक परिवेश में व्याप्त फेसबुक और वाट्सअप जैसी सुवधाएं भी हैं। कई बार नेटवर्क प्रॉब्लम की वजह से कुछ ऐसी गलतफहमी हो जाती है कि बात तलाक तक पहुँच जाती है। वास्तव में हम सभी आज आधुनिकता के रंग में इस कदर रंग गये हैं कि एक दूसरे की बातों को धैर्य से सुनने की शक्ति को कहीं खोते जा रहे हैं। एक तरफ तो हमारी नई टेक्नोल़ॉजी और दूसरी तरफ सामाजिक दुषित मान्यता रिश्तों को तोङने में "आग में घी" का काम करती हैं।
आज हम कितने भी आधुनिक होने का परचम फैलाएं किन्तु अभी भी सिर्फ लङकियों को ही अच्छी पत्नी एवं अच्छी बहु बनने की नसीहत दी जाती है। कोई भी अभिभावक अपने बेटे को एक अच्छा पति एवं अच्छा दामाद बनने की नसिहत क्यों नही देते? 21वीं शदी में लङका और लङकी की बराबरी की बात करते हैं। हिन्दु अधिनियम 955 के तहत दोनों को बराबरी का दर्जा देते हैं। वेदों के अनुसार भी पत्नि को आधा अंश कहते हैं। "ताली तो दोनो हाँथ से ही बजती है" फिर सिर्फ एक को नसिहत देने से विवाह जैसे पवित्र बंधन को कब तक टूटने से बचाया जा सकता है।
कुछ लङके प्यार को समझते हुए भावनात्मक भावनाओं से युक्त यदि अपनी पत्नी की काबलियत का आदर करते हैं और उनकी कही बात को अहमियत देते हैं तो, हमारे अपने कहे जाने वाले रिश्ते ही इस भावना को "जोरू का गुलाम" जैसी उपाधी दे देते हैं। कई बार ऐसे आघातों से दामपत्य जैसा मधुर रिश्ता धाराशायी हो जाता है।
विवाह संबन्धी समस्याओं को सुलझाने के लिए काउनसलर (सलाहाकारों) की बढती बयार यही दर्शाती है कि हमारे समाज में आज हम भले ही अधिक शिक्षित हो गये हों, अधिक आर्थिक संपन्न हो गये हों परन्तु भावनात्मक रिश्तों को आपस में सुलझाने में असर्मथ हैं। ये सलाहकार मनोवैज्ञानिक दृष्टीकोंण से समझा जरूर सकते हैं किन्तु रिश्ते सदैव मधुर रहें इसकी गारंटी नही देते। अतः वैवाहिक युगल को अपनी समस्याओं को आपसी बातचीत और धैर्य के साथ स्वविवेक से हल करना चाहिए, जिससे आधुनिकता के परिवेश में भी हम अपनी संस्कृति जो की भावनात्मक रिश्तों की नींव है, उससे दूर न हों सकें।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि, विवाह जैसे पवित्र संस्कार को जिस पर सृष्टी को आगे बढाने का दायित्व भी है ऐसे पवित्र बंधन को अपने प्यार, समर्पण और आपसी समझदारी से इतना मजबूत करना चाहिये कि आधुनिकता और सामाजिक दुषित सोच इस बंधन को तोङ न सकें।
Marrige is a thousand little things....
It's giving up your right to be right in the heat of an argument. It's forgiving another when the let you down . It's loving someone enough to step down so they can shine. It's frindship. It's being a cheerleader and trusted confidant. It's place of forgiveness that welcomes one home and arms they can run to in the mist of a storm.
It's grace.
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