सार्थक सहयोग
मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह अपने हर कार्य के लिये प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः किसी न किसी का सहयोग चाहता है। उसे अपने हर कार्य में दूसरों के सहयोग की आवश्यकता होती है। ईश्वर ने भी हम सब को ऐसे सिसटम में बांधा है कि बिना सहयोग के हम सरवाइव नही कर सकते। प्रकृति के सहयोग से हमारी मूलभूत आवश्यकता (हवा, पानी) पूरी होती है।
इस लिये मेरा ऐसा मानना है कि यह सहयोग का गुण हमारे मानवीय गुणों में सबसे बङा है। अतः हम सभी को सहयोग की भावना हमेशा अपने मन में रखनी चाहिये तथा दूसरों की सहायता हेतु हमेशा तत्पर रहना चाहिये। परन्तु ऐसा कदापी नही होना चाहिये कि हम जिसकी सहायता करें उसे बार-बार ये एहसास दिलायें कि हमने तुम पर एहसान किया है, क्योकि ऐसा करने पर वह हमारे कर्ज के बोझ तले दबता जायेगा, और यह उसकी प्रगति में बाधक होगा।
आज की युवा पीढी पर यदा कदा ये आरोप लगता है कि वह सहयोग की भावना से दूर होती जा रही है। एक सत्य घटना आपको आज की एक युवा लङकी की बता रहे हैं। मित्रों, मेरे घर के पास एक बहुत होनहार एवं शिष्ट लङकी रहती है। पढाई में भी तेज है। कॉलेज के रास्ते में अक्सर उसे एक विकलांग महिला ट्रायसिकल पर खिलौने बेचती हुई दिखती थी, वो सोचती कि ये आंटी किसी से भीख माँगने के बजाय अपनी मेहनत से एवं स्वाभिमान के साथ कितने शांत भाव से जीवन यापन कर रहीं हैं। उस बच्ची का मन बार-बार उस आंटी की सहायता करने को करता किन्तु उसे समझ नही आता था कि कैसे सहायता करे कि उस महिला के स्वाभिमान को ठेस भी न लगे। एक दिन उसने सोचा कि आंटी से खिलौने खरीद कर उनकी मदद की जा सकती है। क्योंकि कई बार आसपास के बच्चों के जनमदिन के लिये खिलौने तो खरीदने होते ही थे। बङी दुकानों से लेने के बजाय उसने खिलौने उस महिला से खरीदना शुरू कर दिया।
मित्रों, हमारी संस्कृति यही है कि किसी का स्वाभिमान आहत किये बिना सहायता करना। जब हम किसी की सहायता करते हैं तो हमें प्रसन्नता होती है। सहायता करने से व्यक्ति की नम्रता व उसके संस्कार प्रकट होते ।
स्वामी विवेकनंद जी ने कहा है कि-
"हमारा कर्तव्य है कि हम हर किसी को उसका उच्चतम आदर्श जीवन जीने के संघर्ष मेंप्रोत्साहन करें ; और साथ ही साथ उस आदर्श को सत्य के जितना निकट हो सके लाने काप्रयास करें।"
मित्रों, हमारी संस्कृति यही है कि किसी का स्वाभिमान आहत किये बिना सहायता करना। जब हम किसी की सहायता करते हैं तो हमें प्रसन्नता होती है। सहायता करने से व्यक्ति की नम्रता व उसके संस्कार प्रकट होते ।
स्वामी विवेकनंद जी ने कहा है कि-
"हमारा कर्तव्य है कि हम हर किसी को उसका उच्चतम आदर्श जीवन जीने के संघर्ष मेंप्रोत्साहन करें ; और साथ ही साथ उस आदर्श को सत्य के जितना निकट हो सके लाने काप्रयास करें।"
सहायता या सहयोग हमेशा निःस्वार्थ भावना से किया जाना चाहिये अर्थात् यह अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये कि जिसकी हम सहायता कर रहे हैं वह बदले में हमारे लिये भी कुछ करे। क्योकि यह सहयोग नही व्यपार होगा और वैसे भी आज हमारे द्वरा किये गये सहयोग का फल हमें आज न मिले पर कभी न कभी, किसी न किसी रूप में हमें उस सहयोग का लाभ अवश्य होगा।
गीता में कहा गया है कि- कर्म करो, फल की इच्क्षा न करो।।
दोस्तों, मेरा ऐसा मानना है कि जिस व्यक्ति में सहयोग की भावना है उसमें बाकी सभी गुणों का समावेश आसानी से हो जायेगा। उदा. के लियेः- अगर हम विचार करें कि हमें अनुशासन में क्यों रहना चाहिये? इसलिये कि हमें महाविद्यालय के प्रबन्धन में सहयोग करना है तो यहाँ सहयोग की भावना आती है और जिस व्यक्ति में सहयोग की भावना होगी वो अनुशासन में भी रहेगा।
यहाँ ये तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि हम जब कभी भी, जिसका भी सहयोग करें, उसके वर्तमान एवं भविष्य दोनो का ध्यान रखें और ऐसी कोई सहायता न करें की जो वर्तमान में उसे क्षणिक लाभ दे परंतु भविष्य में उसके लिये हानिकारक बन जाए। उदाः- के लिये यदि हम परिक्षा के समय किसी को उत्तर बता देते हैं तो हो सकता है उस परिक्षा में उसे बहुत अच्छा अंक मिल जाए किन्तु बाद में जब वही व्यक्ति अपनी प्रथम श्रेणी डिग्री लेकर किसी अच्छी नौकरी के लिये साक्षात्कार देने जायेगा तो ज्ञानाभाव के कारण नौकरी के लिये योग्य सिद्ध नही होगा और पूर्व में हमारे द्वारा की गई सहायता उसकी प्रगती में बाधक बन जायेगी।
एक कहावत है कि-
"किसी आदमी को एक मछली दीजिये तो आप एक दिन के लिए उसका पेट भरेंगे। किसी आदमी को मछली पकड़ना सीखा दीजिये तो आप जीवन भर के लिए उसका पेट भर देंगे। "
अंत में इतना ही बताना चाहुँगी कि जिस तरह प्यार- प्यार को और विश्वास विश्वास को जन्म देता है उसी तरह सहयोग की भावना, सहयोग की भावना को जन्म देती है। निम्न दोहे से कलम को विराम देते हैं।
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥
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