मंगल मूर्ती वरदविनायक गणेश
रिद्धी सिद्धी के देवता, काटो सर्व कलेश।
सर्व प्रथम सुमिरन करें, गौरी पुत्र गणेश।।
गणेश जी बुद्धि के देवता हैं। हमें जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति गणेश जी की अनुकंपा (बुद्धि) से ही मिल सकती है। गणेश जी, पूजा-पाठ के दायरे से बाहर निकलकर हमारेजीवन से इतना जुड गए हैं कि किसी भी काम को शुरू करने को हम श्री गणेश करना कहते हैं। गणेशोत्सव तो साल में केवल एक बार होता है, परंतु श्री गणेश का स्मरण हमारी दिनचर्या में शामिल है।
समस्त काज निर्विघ्न संपन्न हो इसके लिए गणेश-वंदना की परंपरा युगों पुरानी है। मानव तो क्या, देवता भी सर्वप्रथम इनकी अर्चना करते हैं।
गणेश पुराण के अनुसार गणपति अपनी छोटी-सी उम्र में ही समस्त देव-गणों के अधिपति हैं क्योंकि वे किसी भी कार्य को बल से करने की अपेक्षा बुद्धि से करते हैं। बुद्धि के त्वरित व उचित उपयोग के कारण ही गणेश जी, पिता महादेव से वरदान लेकर सभी देवताओं में मंगलमूर्ति रुप में प्रथम पूज्य हैं।
जल के अधिपति श्री गणेश माने गए हैं। वैज्ञानिकों का दावा है कि जीवोत्पत्ति सबसेपहले जल में हुई। अतएव गणपति को प्रथम पूज्य माना जाना विज्ञान सम्मत भी है।पुराणों व अन्य धर्म ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है की भगवान ब्रह्मदेव ने भविष्यवाणी की थी कि हर युग में श्री गणेश विभिन्न रुप में अवतरित होंगे. सतयुगमें विनायक, त्रेतायुग में मयूरेश्वर, द्वापरयुग में गजानन एवं धूम्रकेतु नाम से कलयुग में अवतार लेंगे।
हिन्दु पंचाग के अनुसार भाद्रपक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक ये उत्सव मनाया जाता है। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि हम सभी एकदन्त, कपिल,गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र,विघ्नराज, द्वैमातुर, गणाधिप, हेरम्ब, गजानन, आदी नामों से स्मरण किये जाने वालेवरद विनायक गणेश जी का जन्मोत्सव, गणेशोत्सव अर्थात (गणेश+उत्सव) पूरे भारत में मनाते है, परन्तु महाराष्ट्र का गणेशोत्सव पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र में मंगलकारी देवता के रूप में व मंगल मूर्ती के रूप में पूजे जाते हैं। दक्षिण भारत में चिंतामणी गणेश “कला शिरोमणी” के रूप में लोकप्रिय हैं।
पूणें में ‘कस्बा गणपति’ नाम से प्रसिद्ध गजानन की स्थापना शिवाजी की माँ जीजाबाई ने की थी। परन्तु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव को जो स्वरूप दिया उससे श्री गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। पहले गणेश पूजा केवल परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देना केवल धार्मिक आस्था न थी अपितु आजादी की लङाई, छुआछूत दूर करने, तथा समाज को संगठित करके एक आन्दोलन का स्वरूप देना था। जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सभी विघ्न बाधाओं को पार कर हमारा भारत स्वतंत्र हुआ।
बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधारोपण किया था वो आज विराट वृक्ष बन गया है। आज हम सब संपूर्ण भारत में इसे धूमधाम से मनाते हैं।
मित्रों, गणेश जी को दुर्वा (दूब) क्यों चढाते हैं या तुलसी क्यों नही चढाते इससे जुङी एक कथा है:- ‘अंगलासुर नामका दुष्ट राक्षस थ। वह मुंह से आग उगलता था । उसकी दृष्टि के सामने जो भी आता था, उसे वह जला डालता था । उसके नेत्रों से अग्नि की ज्वाला निकलती थी । मुखसे वह अत्यधिक धुआं निकालता था । सभी को उससे बहुत भय लगता था। अंगलासुर ने अनेक जंगल जला डाले थे । वह खेत की फसल, पशु-पक्षी, मनुष्य सबको जलाकर राख कर देता था। उसके आतंक को समाप्त करने हेतु,एक दिन गणपती ने अपने छोटे रूपको परिवर्तित कर के अंगलासुर से तिगुने उंचे हो गए । यह देखते ही अंगलासुर भयभीत हो गया । श्री गणेशजी ने अंगलासुर राक्षस को सुपारी के समान खा लिया, जिससे गणेश जी का शरीर अत्यधिक जलने लगा । इस जलन को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एवं ऋषि- मुनियों ने उनको दूब अर्पण किये जिससे उनकी जलन मिट गई। तभी से गणेंश जी को दूब जरूर चढाई जाती है।“
तुलसी को देव वृक्ष के रूप में पवित्र माना जाता है। फिर भी भगवान गणेश को पवित्र तुलसी नहीं चढ़ाना चाहिए। इससे जुड़ी एक पौराणिक कथा है - एक बार श्री गणेश गंगा किनारे तप में लीन थे। इसी दौरान विवाह की इच्छा से तीर्थयात्रा पर निकली देवी तुलसी वहां पहुंची। वह श्री गणेश को देखकर मोहित हो गई। तुलसी ने विवाह की कामना से उनका ध्यान भंग कर दिया। तब भगवान श्री गणेश ने तुलसी द्वारा इस तरह के कृत्य को अशुभ बताया। साथ ही तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया। इस बात से आहत होकर तुलसी ने श्री गणेश को दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर श्री गणेश ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारी संतान असुर होगी। ऐसा शाप सुनकर तुलसी ने श्री गणेश से माफी मांगी। तब श्री गणेश ने तुलसी से कहा कि तुम पर असुरों का साया तो होगा। किंतु भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए देववृक्ष के रूप में जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। किंतु मेरी पूजा में तुलसी का चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा। मान्यता है कि तब से ही भगवान श्री गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है।
मित्रों, पुराणों एवं वेद के आधार पर गणेश जी के बारे मे कुछ और बताने का प्रयास कर रहे हैं —
(1) गणेश जी ने विघ्नासुर नाम के राक्षस का भी वध किया। इसलिए उन्हें विघ्नेश्वर कहा जाता है।
(2) अष्टविनायक गणेश में बल्लालेश्वर गणेश ही एकमात्र ऐसे गणेश माने जाते हैं,जिनका नाम भक्त के नाम पर प्रसिद्ध है। यहां गणेश की प्रतिमा को ब्राह्मण की वेशभूषा पहनाई जाती है।
(3) महेश्वर का गोबर गणेश मंदिर पहली नजर में देशभर में स्थित अपनी ही तरह के हजारों गणेश मंदिरों की ही तरह है लेकिन औरंगजेब के समय में इसे मस्जिद बनाने का प्रयास किया गया था। जिसका प्रमाण इस मन्दिर का गुंबद है, जो मस्जिद की तरह है। गोबर गणेश मंदिर में गणेश की जो प्रतिमा है, वह शुद्ध रुप से गोबर की बनी है। इस मूर्ति में 70% से 75% हिस्सा गोबर का है और इसका बीस-पच्चीस फीसदी हिस्सा मिट्टी और दूसरी सामग्री से बना है इसीलिए इस मंदिर को गोबर गणेश मंदिर कहते हैं। विद्वानों के अनुसार मिट्टी और गोबर की मूर्ति की पूजा पंच भूतात्मक होने तथा गोबर में लक्ष्मी का वास होने से ‘लक्ष्मी तथा ऐश्वर्य’ की प्राप्ती हेतु की जाती है।
(4) वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। प्राचीन काल में यह स्थान भद्रक नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है। इस दीप के बारे में मानाजाता है कि यह सन १८९२ से लगातार प्रदीप्त है।
(4) वरदविनायक गणेश अपने नाम के समान ही सारी कामनाओं को पूरा होने का वरदान देते हैं। प्राचीन काल में यह स्थान भद्रक नाम से भी जाना जाता था। इस मंदिर में नंददीप नाम से एक दीपक निरंतर प्रज्जवलित है। इस दीप के बारे में मानाजाता है कि यह सन १८९२ से लगातार प्रदीप्त है।
वरद विनायक की ज्योति हम सभी के जीवन रौशन करे यहीप्रार्थना करते हैं।
एकदंन्तं महाकायं लम्बोदरं गजाननं ।
विघ्ननाशकरं देवम् हेरम्बं प्रणमाम्यहम् ॥
विघ्ननाशकरं देवम् हेरम्बं प्रणमाम्यहम् ॥
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