मानवता का प्रतीक है, सहयोग की भावना
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, जिसकी उन्नति सहयोग की बुनियाद पर निर्भर है। जिस प्रकार ईंट से ईंट जोङकर विशाल भवन बनता है, पानी की एक-एक बूंद से सागर बनता है। उसी प्रकार अनेक व्यक्तियों के परस्पर सहयोग से ही मनुष्य का विकास संभव है। समाज और राष्ट्र की समृद्धि परस्पर सहयोग पर ही निर्भर है।
पूर्ण विकास सहयोग से ही होता है। कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ नही होता। कलाकार के सामने डॉक्टर अयोग्य है, तो डॉक्टर के सामने इंजीनियर, तो कहीं साहित्यकार के सामने व्यपारी। कहने का आशय ये है कि, सभी अपनी-अपनी विधाओं में पूर्ण हैं किन्तु संतुलित विकास के लिए एक दुसरे का सहयोग अति आवश्यक है। सहयोग की आदतें मनुष्य में मैत्री भावना का विकास करती हैं। गौतम, महावीर, ईसा हों या कृष्ण, कबीर, राम, रहीम सभी महापुरुषों में मैत्री की भावना समान है।
धरती पर जैविक संरचना कुछ इस प्रकार है कि समाज से परे अकेले व्यक्ति का विकास संभव नही है। प्राणी में शरीर के सभी अंग मिलकर कर कार्य करते हैं तभी व्यक्ति अनेक कार्य करने में सक्षम होता है। इतिहास गवाह है कि रावण, कंस, दुर्योधन हो या हिटलर, मुसोलिन, चँगेज खाँ तथा नादिरशाह जैसे शक्तिसंपन्न कुशल नितिज्ञ थे किन्तु सभी ने सामाजिक भावना का निरादर किया जिसका परिणाम है उनका अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
सृजन का आइना है परस्पर सहयोग। जिस तरह आम के वृक्ष का विशाल अस्तित्व, मधुर फल, शीतल छाया दूसरें लोगों के सहयोग का ही परिणाम है। उसी प्रकार व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व समाज के प्रयत्नों का ही फल है।
मदर टेरेसा का कहना था कि, “आप सौ लोगों की सहायता नही कर सकते तो सिर्फ एक की ही सहायता कर दें।“
सच ही तो है मित्रों, एक और एक ग्यारह होता है, बूंद-बूंद से ही घङा भरता है। व्यक्ति और समाज का कल्याण इसी पर निर्भर है कि लोग व्यक्तिवाद की मानसिकता को छोङकर सहयोग के महत्व को समझते हुए उसे जीवन का अहम हिस्सा बना ले। सहयोग की भावना की एक शुरुवात से ही "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना सजीव होती है।
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